चैत्यगृह

वैशाली के चार प्रसिद्ध चैत्य थे – पूर्व में उदयन, दक्षिण में गौतमक, पश्चिम में सप्ताभ्रक, उत्तर में बहुपुत्रक अन्य चैत्यों के नाम थे- कोरमट्टक तथा चापाल आदि। बौद्ध किवदंती के अनुसार तथागत ने चापाल चैत्य ही में अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था कि- तीन मास पश्चात् मेरे जीवन का अंत हो जाएगा। लिच्छवी लोग वीर थे, किंतु आपस की फूट के कारण ही वे मगध के राजा अजातशत्रु की राज्य लिप्सा का शिकार बने।

बुद्ध की प्रिय नगरी

एकपण्ण जातक के प्रारंभ में वर्णन है कि “वैशाली के चारों ओर तीन भित्तियाँ थीं, जिनके बीच की दूरी एक एक कोस थी और नगरी के तीन ही सिंहद्वार थे, जिनके ऊपर प्रहरियों के लिए स्थान बने हुए थे।” युद्ध के समय वैशाली अति समृद्धिशाली नगरी थी। बौद्ध साहित्य में यहाँ की प्रसिद्ध गणिका आम्रपालिका के विशाल प्रासाद तथा उद्यान का वर्णन है।

इसने तथागत से उनके धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली थी। तथागत को वैशाली तथा उसके निवासियों से बहुत प्रेम था। उन्होंने यहाँ के गणप्रमुखों को देवों की उपमा दी थी। अंतिम समय में वैशाली से कुशीनारा आते समय उन्होंने करूणापूर्ण ढंग से कहा था कि- “आनन्द अब तथागत इस सुंदर नगरी का दर्शन न कर सकेगे।

अन्य महत्त्वपूर्ण स्थल

जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर महावीर भी वैशाली के ही राजकुमार थे। इनके पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला था। ये लिच्छवी वंश के ही रत्न थे। इनका जन्म स्थान वैशाली का उपनगर कुंद या कुंड था, जिसका अभिज्ञान बसाढ़ के निकट वसुकुंड नामक ग्राम से किया गया है।

वैशाली के कई उपनगरों के नाम पाली साहित्य से प्राप्त होते है, जैसे- कुंदनगर, कोल्लाग, नादिक, वाणियगाम, हत्थीगाम आदि। महावंश के अनुसार वैशाली के निकट बालुकाराम नामक उद्यान स्थित था।

बरवरा ग्राम से एक मील दूर कोल्हू नामक स्थान के पास एक महंत के आश्रम में अशोक का सिंहशीर्ष स्तंभ है, जो प्रायः पचास फुट ऊंचा है, किंतु भूमि के ऊपर यह केवल अठारह फुट ही है। चीनी यात्री युवानच्वांग ने इसका उल्लेख किया है। पास ही मर्कटह्रद नामक तड़ाग है। कहा जाता है कि इसे बंदरों के एक समूह ने बुद्ध के लिए खोदा था।

मर्कटह्रद का उल्लेख बुद्धचरित में है। यहाँ उन्होंने मार या कामदेव को बताया था कि वे तीन मास में निर्वाण प्राप्त कर लेंगे। तड़ाग के निकट कुताग्र नामक स्थान है। जहाँ बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन के पांचवे वर्ष में निवास किया था। बसाढ़ के खंडहरों में एक विशाल दुर्ग के ध्वंसावशेष भी स्थित हैं। इसको राजा वैशाली का गढ़ कहते है। एक स्तूप के अवशेष भी पाए गए हैं।

मौर्यों से सम्बन्ध

गुप्त काल में लिच्छवी वंश की कन्या कुमारदेवी का विवाह चंद्रगुप्त प्रथम से हुआ था। इसी राजकुमारी के गर्भ से प्रतापी समुद्रगुप्त पैदा हुआ। कुमारदेवी के नाम का उल्लेख समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में हुआ है। राजनीतिक दृष्टि से यह विवाह संबन्ध महत्त्व से भरा हुआ था। इसके फलस्वरूप सम्पूर्ण लिच्छविराज्य गुप्त-राज्य में मिल गया। लगता है कि कुमारदेवी लिच्छवि-राज्य की एक मात्र वारिस रह गई थी। इस विवाह के स्मारक-रूप में चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी दोनों के ही नाम पर सिक्के चलाये गये। ये सिक्के एक ही तरह के हैं। इन पर दोनों के नाम और चित्र तथा लिच्छवियों का उल्लेख मिलता है। वैशाली का नगर अब गुप्तों को प्राप्त हो गया। उन्होंने इसे तीरभुक्ति (तिरहुत प्रान्त) की राजधानी बना दी। वहाँ गुप्प वंशीय राजकुमार राज्यपाल की हैसियत से नियुक्त किये गये थे। इसकी पुष्टि पुरातत्त्वीय साक्ष्यों से भरपूर हो जाती है।

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