धार्मिक पौराणिक और ऐतिहासिक प्रथा है दहेज.. आइये जानते है कुछ विशेष बाते..
दहेज एक ऐसी प्रथा जिसे सदियों से समाज के ही लोगों ने ही संस्कृति और कुलीन रीति रिवाजों के नाम पर सींचा है..
बात पौराणिक हो या ऐतिहासिक अनेक उदाहरण मिलते है जहाँ पाणिग्रहण के बाद वधु पक्ष से वर एवं वर पक्ष को अनेकों उपहार दिए जाते है। गौर करने वाली बात ये है की बदलते दौर में पहले जो उपहार शौक से दिए जाते थे अब उनको देना वधु पक्ष की मजबूरी बन चुकी है। पर ऐसा क्यों होता है इसपे गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है.. अगर कन्या और बालक दोनो परस्पर एक समान है तो बचपन से ही कन्या को माँ बाप बोझ क्यों समझते है? उसे पराये घर जाना है ये बात उसके दिलों दिमाग मे क्यों बैठाया जाता है? और अंतिम सवाल अगर बालक बालिका एक समान है ही तो बालिकाओ को भी माँ बाप की संपत्ति में भाई के तरह बराबर का हक क्यों नही मिलता? दहेज प्रतिबंधित हो ऐसा कानून 1961 ई. से ही संविधान में निहित है, अनुच्छेद 498 में इसकी व्याख्या मिलती है, पर क्या ये प्रथा सच में बंद हो गई है? अगर बेटा बेटी एक समान है तो दोनों को सम्पति में बराबर अधिकार क्यों न मिले, और ये प्रथा क्यों न बदले की सिर्फ कन्या पक्ष ही दहेज दे, अगर प्रथा हमारे सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों से जुड़ी है तो वर पक्ष भी दहेज दे कर विवाह करें।
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