चाक पर गढ़े और कुम्हारों के आंगन में सजे, इस बार दीवाली पर मिट्टी के दीये जलाएं
दीपों का पर्व दीपावली भले ही रंगीन सतरंगी बल्वों से शहर की अट्टालिकाओं को रोशनी से चकाचौंध करता हो, पर आस्था के साथ बना मिट्टी के दीयों का एक अलग महत्व है।
हाईटेक युग में एक से बढ़कर एक रंगीन बल्व अपनी खूबसूरती की छटा बिखेर रहे होते हैं। वहीं मद्धिम सा जलता हुआ मिट्टी का दीया परंपरा को जीवित रखकर तमसो मा ज्योतिगर्मय का संदेश देता है।
इस आधुनिक युग में भी दीपावली के मौके पर घरों को रोशनी के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के अलावे शहरों में भी मिट्टी के दीये जलाए जाते हैं। इस पुरातन परंपरा के जीवित रहने के कारण ही कुंभकारों के आंगन में परम्परागत रूप से चाक पर दीये का निर्माण हो रहा है। मिरचाई घाट, कंगन घाट, रानीपुर, सबलपुर, कटरा बाजार आदि इलाकों में कुंभकारों ने दीया बनाना शुरू कर दिया है। पुश्तैनी काम में लगे संजय पंडित व किरण देवी बताते हैं कि देशहित और जागरुकता के कारण इस वर्ष चाइनीज झालर की बजाय मिट्टी के दीयों की ही मांग तेज है।
हमारे परिवार में लगभग 25 हजार दीये बनाए जाते हैं जो पर्व के पहले ही बिक जाते हैं। हालांकि गंगा नदी की मिट्टी का दर बढ़ने व खेतों में बाढ़ का पानी आने से हमें मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। हमलोगों को मिट्टी ढुलाई में ही दो हजार रुपए प्रति ट्रैक्टर खर्च हो जाता है। अभी तो 50 से 60 रुपए प्रति सैकड़ा की दर से दीये बेचे जा रहे हैं, लेकिन दीपावली आते-आते मांग में बढ़ोतरी के साथ संभवत: 70 से 80 रुपए प्रति सैकड़ा की दर से बेचा जाएगा। बड़े दीयों की कीमत खुदरा बाजार में दो रुपए प्रति पीस है।