मैं हर रोज
मैं हर रोज ख्वाबों से लड़ती ,
क्यों आने देते हो , उस जालिम को बेवजह
मैं हर रोज धड़कन से पूछती
क्यों नहीं रुक जाते उस पल,
जब धड़कते हो , उसकी बेवफाई में सदा
मैं हर रोज लोगों से कहती,
क्यों नहीं रोकते मुझे ?
जब मेरी निगाहों में दिखता है उसका चेहरा
मैं हर रोज सांसो को टोकती,
क्यों नहीं थम जाते ?
जब हर सांस में, उसका इत्र है बसा
मैं हर रोज अपने इरादों से पूछती,
क्यों नहीं बेपाख हो जाते ?
जब उसके लिए पाख इरादे हैं आते
मैं हर रोज दुनिया को समझाती
क्यों नहीं रुखसत करते ,खुद से इस फकीर को
जब ये अपनी पूरी दुनिया,
उस अमीर को है बुलाती ।
मैं हर रोज मोहब्बत के रिशतों से कहती,
क्यों नहीं अकेला छोड़ देते मुझे ?
जब मैं हर हमेशा, हर रिश्तो से
उस बेवफा के प्यार की नुमाइश हूं करती !
मैं हर रोज अपने रूह को पूछती,
क्यों अब तक ज़िंदा है मुझ में ?
जबकि ये ,अपनी रूह भि ,
फना उस पर है, कर बैठी ।
मैं हर रोज हाथों को कहती,
क्यों जुड़ें से हो मुझसे ?
जबकि ये हर लम्हा,
उसके स्पर्श को है तरसती !
मैं हर रोज रोशनी से कहती,
क्यों करते हो रोशन जहां मेरा ?
जबकि ये, हर लम्हा अंधेरे में
उस कातिल को है, निहारती !
मैं हर रोज वक्त से पूछती,
क्यों इतना वक्त दे रहे हो मुझे ?
जबकि ये शालीन होकर,
वक्त बेवक्त उसी शैतान को है पुकारती ।
मैं हर रोज इंतेला करती बादलों को,
बरसना छोड़ दे मुझ पे,
ये जालिमा हर बरसात,
उसके साथ को है तड़पती ।
मैं हर रोज आईने से, टूट कर ये कहती
क्यों नहीं चूर होकर बिखर जाता ?
जब मेरी जगह, उसका प्रतिबिंब
है, तुममे नजर आता !!
मैं हर रोज महफिल से ये कहती,
क्यो सजते हो इस बदनसीब के लिए ?
जबकि हर महफिल का मेजबान_ए_दहर
ये उस, खुशनसीब को है समझती ।
मैं हर रोज किताब, कलाम – ए -पाक से, ये कहती
क्यों पढ़ने देते हो खुद को, मुझे ?
जब कि ,हर कहानी और किरदार में
ये बंजारी, उसी बेदर्दी को है खोजती ।
मैं हर रोज खुदा से यह दुआ करती,
या अल्लाह, इंतकाल क्यों नहीं देता मुझे ।
जब ये जालिमा, सब कुछ तुझसे लेकर,
अपना खुदाया , उस जालिम को है पुकारती !!