तृप्ति शाक्या भक्ति ,भजन व पार्श्व गायन यात्रा के अग्रणी व अहम सारथी है ।आज भक्ति गीतों व भजन को सरलता और सफलता से जनमानस के दिल व आम घरों तक पहुंचाने का बहुत बड़ा श्रेय तृप्ति शाक्या को जाता है ।संगीत जगत में उनकी मीठी व सुरीली आवाज ने विशेष पहचान बना ली है ।वे विघापतिधाम में आयोजित छठा विघापति राजकीय महोत्सव के दौरान भजन संध्या कार्यक्रम की प्रस्तुति देने के लिए आयी हुए थी । बचपन से ही संगीत से लगाव रहा ।अब तक 4000 से अधिक लाइव कंसर्ट कार्यक्रम, दर्जन अधिक फिल्म के लिए पार्श्व गायन , 120 से अधिक भजन / भक्ति गीतों के एलबम । यंग अचीवमेंट सम्मान इनकी सफलता की कहानी को बयां करने को काफी है । इन दिनों शाक्या जी सामाजिक कार्यों में काफी अभिरुचि ले रही है । पदमाकर सिंह लाला ने इनसे अनछुए पहलुओं पर बातचीत की ।प्रस्तुत है इसके मुख्य अंश :
अपने शुरुआती समय के बारे में कुछ बताइए ?
मेरी पढाई लिखाई गांव में हुई ।मुझे बचपन से ही संगीत से लगाव रहा । मेरी घर के लोंगो को गहरा लगाव था।वो चाहती थी कि हम प्लेबैक सिंगर बने जबकि पिताजी अधिकारी बनाना चाहते थे । मैंने पांच साल की उम्र में ही संगीत सिखना शुरू कर दिया था।
लोकगीतों से पहला परिचय कब और कैसे हुआ ?
हम जहाँ पैदा होते हैं एवं हमारा बचपन जहाँ बीतता है, वो परिवेश हमारे जीवन पर काफी असर डालता है। मेरे साथ स्थिति ये रही कि मेरा पूरा बचपन पूर्वांचल की माटी पर बीता जबकि मै रहने वाली इटावा की हूँ। लोकगीत आदि से पहला परिचय घर-परिवार से हुआ। माँ तो नहीं गातीं थीं, लेकिन दादी जब वो गाने बैठतीं थीं, तो घर की छोटी लड़कियां आदि उनके साथ गाने बैठ जाती थीं। शादी, जनेऊ आदि के गीत होते थे। मै भी साथ में बैठकर मुँह चलाती थीं क्योंकि हमारी समझ में तब बहुत ज्यादा कुछ आता नहीं था। अगर मोटे तौर पर कहूँ तो लोकगीत आदि से पहला परिचय बचपन में परिवार के माध्यम से ही हुआ।
लोकगीत को आप कैसे परिभाषित करती हैं ?
लोकगीत को अगर कम शब्दों में कहें तो संगीत की वो विधा है जिसमे प्रत्यक्ष तौर पर लोक यानी ग्रामीण समाज की उपस्थिति दिखे। लोकगीत महज संगीत नहीं होते बल्कि हमारे समाज के तमाम रस्मों, रिवाजों, संस्कारों एवं पर्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लोकगीत के बारे में यह कहना सर्वाधिक उचित होगा कि ये समाज से जुड़ी सर्वाधिक सार्थक संगीत है। हमारे समाज के तमाम पहलुओं को संगीत के माध्यम से अगर प्रस्तुत किये जाने की बात हो तो लोकगीत ही सर्वाधिक सुलभ व सहज माध्यम के रूप में नजर आते हैं। एक पंक्ति में कहें तो लोकगीत लोक की प्रस्तुती का संगीत है।
आपके बारे में ख्यात है कि आप गीतों को गाती ही नहीं हैं बल्कि उन्हें हाव-भाव एवं नृत्य के साथ प्रस्तुत भी करती हैं। गायन व नृत्य का ये सामंजस्य कैसे बनता है ?
जी बिलकुल। दरअसल मै गीतों के लय पर कला प्रस्तुति करने के लिहाज से कभी नृत्य नही करती हूं। मै शब्दों और भावों के वातावरण में डूबकर नृत्य करती हूं। प्रस्तुति के मायने ही यही है कि गीत के शब्द और गायक के हाव-भाव के बीच की सारी दूरियां मिट जाए और दोनों एक हो जाएँ।
आप अवधी क्षेत्र से आती हैं लेकिन लोकप्रियता भोजपुरी संगीत की वजह से है! इसकी क्या वजह है ?
घर- परिवार के लोग अवधी में ही बात करते थे ।लेकिन आसपास के लोग भोजपुरी भाषी भी थे। उस दौरान खेल-खेल में हुए ऐसे वार्तालापों के कारण भोजपुरी से अनायास एक जुड़ाव सा होता गया, जिसका ठीक-ठीक पता मुझे भी नहीं चला। खैर अब तो भोजपुरी भी अपनी ही लगती है और भोजपुरी संगीत भी अपना ही लगता है।
आप जिस भाषा के संगीत का प्रतिनिधित्व करती हैं, वो गीत में अश्लीलता के लिए काफी विवादित है। आपकी क्या चिंता है इसपर ?
देखिये, भोजपुरी में अश्लील गीतों की बहुलता पिछले एक दशक में खूब हुई है। पहली बात तो ये हैं कि मै इसका पुरजोर विरोध करती हूं। दुसरी बात ये कि इस तरह के गीतों की लम्बी उम्र नहीं होती और न ही ये संगीत कालजयी होते हैं। अगर अश्लील गीतों के भरोसे को छणिक चर्चा प्राप्त भी कर ले तो भोजपुरी संगीत के भावी इतिहास में उसका नाम सम्मान से लिखा जाएगा, ऐसा कतई नही है। तीसरी एक और बात ये है कि ऐसे गीतों की स्वीकार्यता ही कितनी है ? महज उतनी ही है जितनी समाज में बुराई की स्वीकार्यता है। यह समाजिक चिन्तन का विषय है, न कि चिंता का! लोक परंपराएं पीढ़ी दर पीढ़ी हमें यह बताती आयी हैं कि लोकगीत, लोगों के हृदय से फूटा और पूरे समाज में छा गया। इन परंपराओं की खोज करना एक और बात है लेकिन आज जिन संदर्भों में इन गीतों को याद किए जाने का अवसर मिल रहा है वो किसी उत्सव से कम नहीं है।लोकगीत तो जीवन की धड़कन हैं।आजकल बाजार इतना मायावी है कि कई तरह के संगीत को मिक्स करके भी हमें देता है तो हम नकार नहीं पाते, ऐसे समय में वे धुनें जो हृदय, कान और आत्मा के तारों को झंकृत कर दें, किसी चुनौती से कम नहीं हैं।
वर्तमान दौर में लोकगीत के वजूद पर खतरा उत्पन्न हो गया है?
लोक गीत हमेशा से कालजयी है और भविष्य में भी रहेगा ।ऐसे में इसे बचाने की जरूरत है। साथ हीं कहा कि अब समय आ गया है कि युवा पीढ़ी लोकगीतों की परंपरा को बचाने की कमान थामे।लेकिन जब देखा युवा पीढ़ी लोक संगीत से दूर हो रही है तो मैंने इस जिम्मेदारी को निभाने का निर्णय लिया। इसलिए लाेक संगीत के लिए खुद को समर्पित कर दिया है।
लोककला व कलाकारों की स्थिति कैसे सुधार सकते हैं?
इसके पीछे हम ही दोषी हैं। एक बार फिर आप सभी बच्चों को लोरी सुनाना शुरू कर दें। उत्सव में लोक गीत गाएं और यदि किसी प्रोग्राम में डांस करने की इच्छा हो तो हनी सिंह और बादशाह के सांग की जगह लोकगीत पर करें। कला और कलाकारों की स्थिति सुधर जाएगी।
पदमाकर सिंह लाला, से विशेष बातचीत पर आधारित