दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग, तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो… : कलीम आजिज
कलीम आजिज उन अजीम शायरों में से एक थे, जिनकी वजह से पूरी अदबी दुनिया में बिहार का नाम रोशन हुआ। करीब आधी सदी तक उर्दू साहित्य सेवा के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा है। जिस दिलकश अंदाज में उन्होंने गजलें लिखीं, उसे हमेशा जमाना याद रखेगा। कलीम आजिज की गजलें दर्द की कहानियां हैं। उनपर आगे कुछ पढ़ें इससे पहले इस पर गौर फरमाएं।
दिन एक सितम, एक सितम रात करो हो । वो दोस्त हो, दुश्मन को भी जो मात करो हो ।। मेरे ही लहू पर गुज़र औकात करो हो, मुझसे ही अमीरों की तरह बात करो हो । हम ख़ाकनशीं तुम सुखन आरा ए सरे बाम, पास आके मिलो दूर से क्या बात करो हो । हमको जो मिला है वो तुम्हीं से तो मिला है, हम और भुला दें तुम्हें, क्या बात करो हो । दामन पे कोई छींट न खंजर पे कोई दाग, तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो । यूं तो कभी मुंह फेर के देखो भी नहीं हो, जब वक्त पड़े है तो मुदारात करो हो । बकने भी दो आजिज़ को जो बोले है बके है, दीवाना है, दीवाने से क्या बात करो हो ।
कलीम आजिज़ का जन्म 11 अक्टूबर 1926 ई. में पुराना पटना ज़िला (नया जिला नालंदा) की एक प्रसिद्ध बस्ती तेल्हाड़ा में हुआ। उनके पिता का नाम शेख केफायत हुसैन और मां का नाम अम्मतुल फातेमा था। कलीम आजिज़ की प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा उनके नाना मौलवी जमीरुद्दीन के मकतब में हुई। बचपन से ही उन्हें किस्से-कहानियों का बड़ा शौक रहा। वह कम उम्र में ही केससुल अम्बिया, मिरआतुल उरूस, बनातुन-नअ्श, तौबतुन नसूह, इब्नुल वक़्त, कि़स्सा ह़ातिम ताई, बाग़-व-बहार, दास्ताने मीर हम्ज़ा, तिलिस्म-ए होश-रुबा, अल्फ़ लैला, फि़सान-ए ख़ुर्शीदी और शरर के सभी उपन्यास पढ़ चुके थे।
इनके अलावा उन्होंने लखनऊ स्कूल के सभी प्रसिद्ध शायरों मुस्हफी, इन्शा, नासिख, रिन्द, सबा, वजीर, दाग व अमीर मीनाई वगैरह के गजल संग्रह पढ़ डाले। इससे उनके साहित्यिक व्यक्तित्व का निर्माण हुआ। इसके अलावा उनकी ननिहाल में शेर-व-शायरी का अच्छा खासा माहौल था। कलकत्ता में पिता जी के साथ रहने के दौरान उन्हें थियेटर देखने का जबरदस्त शौक हो गया था। वह छुप -छुपकर ख़ूब थियेटर देखा करते थे।
कलीम आजिज ने पटना मुस्लिम हाई स्कूल से 1941 ई. में मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1954 ई. में बिहार विश्वविद्यालय से आई.ए. की परीक्षा प्राइवेट से पास करने के बाद उन्होंने 1956 ई. में पटना विश्वविद्यालय से बी.ए. (उर्दू ऑनर्स) तथा 1958 ई. में एम.ए. (उर्दू) की परीक्षा पास की और सवार्ेपरि होने के कारण स्वर्ण पदक से सुशोभित किए गए। 1965 ई. में उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से ही पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की और पटना कॉलेज में लेक्चरर हुए। इससे पहले उन्होंने ओरिएन्टल कॉलेज, पटना सिटी में एक साल के लिए उर्दू के लेक्चरर के रूप में अपनी सेवा प्रदान की थी।
वे एक धार्मिक और सूफ़ी-संत विचार के व्यक्ति थे। 1961 ई. से मरते दम तक तब्लीगी जमाअत से उनका गहरा रिश्ता रहा। उनका नाम उर्दू जगत में एक प्रभुत्वशाली, सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय नाम है, उन्हें दबिस्ताने अज़ीमाबाद (अज़ीमाबाद स्कूल) की प्रतिष्ठा समझा जाता है। कलीम आजिज ने 1937 ई. में पहली बार गज़ल लिखी और ‘आजिज’ तखल्लुस (उपनाम) का प्रयोग किया।
थी फरमाइश बुजुर्गों की तो लिख दी गजी आजिज वरना शायरी का तजरिबा हमको भला क्या है
तीन नवम्बर 1946 ई. के दौरान एक भयानक हिंसा की घटना का उनकी जिंदगी और शायरी पर बड़ा गहरा असर पड़ा। जिसमें उनकी मां और छोटी बहन की मौत हो गई थी। इस गम की आग को वो सारी जिंदगी अपने सीने में दबाए रहे। इस हादसे की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा-
वो जो शायरी का सबब हुआ, वो मुआमला भी अजब हुआ मैं गजल सुनाऊं हूं इसलिए कि जमाना उसको भुला न दे
कलीम आजिज ने अपनी बेमिसाल और ख़ूबसूरत शायरी से पूरी दुनिया में अपनी काव्यात्मक निपुणता एवं महानता का लोहा मनवा लिया। उनकी शायरी में एहसास की तीव्रता, फिक्र की नवीनता और प्रस्तुति की जो सुन्दरता का सम्मिश्रण मिलता है, वह अपनी मिसाल आप है। उनकी शायरी नवीन चिंतन की क्लासिकी शायरी का बेहतरीन नमूना है। कलीम आजिज एक अद्वितीय और विशिष्ट प्रतिभा के गद्य लेखक भी थे। उनकी कृतियों में मूल्यों के पतन की दास्तान और उनकी पुन: प्राप्ति की तड़प है।
कलीम आजिज की अतिविशिष्ट एवं सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘वो जो शायरी का सबब हुआ़ (जिसमें गद्य एवं शायरी दोनों के मनमोहक नमूने हैं) की एक लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। कलीम आजिज की महान शायरी का अंदाजा इस बात से भी भली-भांति होता है कि उनके जीवन में ही उनके कई अशआर लोकोक्ति बन कर पूरी दुनिया में मशहूर हो गए थे।
दामन पे कोई छींट न खन्जर पे कोई दाग तुम कत्ल करो हो कि करामात करो हो बात चाहे बे-सलीका हो कलीम बात कहने का सलीकाचाहिये अपना तो काम है कि जलाते रहो चिराग रस्ते में ख़्वाह दोस्त कि दुश्मन का घर मिले
कलीम आजिज देश-विदेश में मुशाअरों की शान थे। पाकिस्तान, दुबई, सऊदी अरब, जद्दा, बहरीन, क़तर, अमेरिका, कनाडा, लंदन, शारजाह आदि में वह लगभग हर साल मुशाअरे में बड़े सम्मान के साथ आमंत्रित किए जाते रहे।
मेरा सौभाग्य है कि मैंने कलीम आजिज की इच्छानुसार चार माह के अथक प्रयास के बाद उनका तीसरा गजल संग्रह ‘हां छेड़ो गजल आजिज’ संकलित करके सितम्बर 2014 के अंत में उनकी खिदमत में पेश कर दिया। वे बहुत प्रसन्न हुए। उनकी इच्छा थी कि यह गजल संग्रह अविलम्ब प्रकाशित हो जाए। हालांकि 15 फरवरी 2015 ई. को काव्य जगत का यह प्रभुत्वशाली, सम्मानित, लोकप्रिय एवं विश्व प्रसिद्ध कवि अपने अंतिम गजल संग्रह को देखने की हसरत लिए हुए इस दुनिया से रुखसत हो गया।
आसमां तेरी लहद पर शबनम अफशानी करे । सब्ज-ए-नौ रूस्ता उस घर की निगहबानी करे॥
कलीम आजिज़ और अवार्ड
केन्द्र सरकार ने कलीम आजिज़ को जनवरी 1989 ई. में ‘पद्मश्री’ के अवार्ड से सम्मानित किया। ’ मीर अकादमी लखनऊ ने 1981 ई. में ‘इम्तियाज़-ए मीर अवार्ड’ से सुशोभित किया। ’ राजभाषा विभाग, बिहार सरकार ने 2001 ई. में एक लाख 51 हज़ार का उच्च स्तरीय ‘मौलाना मज़हरुल हक़ शिखर सम्मान अवार्ड’ दिया। ’ 2012 ई. में ग़ालिब अकादमी, दिल्ली ने 75 हज़ार रुपए के ग़ालिब अवार्ड, प्रशस्ति-पत्र एवं मेमेन्टो से सम्मानित किया गया। ’ 17 जून 2008 ई. एवं 18 मई 2012 ई. को बिहार सरकार ने दो बार उन्हें उर्दू परामर्शदातृ समिति के अध्यक्ष बनने का सम्मान दिया। ’ इनके अतिरिक्त भी कलीम आजिज़ दर्जनों देशी-विदेशी अवार्ड से सम्मनित किए गए।
ये दीवाने कभी पांबदियों का गम नहीं लेंगे गिरेबां चाक जब तक कर न लेंगे दम नहीं लेंगे लहू देंगे तो लेंगे प्यार मोती हम नहीं लेंगे हमें फूलों के बदले फूल दो शबनम नहीं लेंगे ये गम किस ने दिया है पूछ मत ऐ हम-नशीं हम से ज़माना ले रहा है नाम उस का हम नहीं लेंगे मोहब्बत करने वाले भी अजब ख़ुद्दार होते है। जिगर पर ज़ख़्म लेंगे ज़ख़्म पर मरहम नहीं लेंगे ग़म-ए-दिल ही के मारों का ग़म-ए-अय्याम भी दे दो ग़म इतना लेने वाले क्या अब इतना ग़म नहीं लेंगे संवारे जा रहे हैं हम उलझती जाती हैं जुल्फें तुम अपने ज़िम्मे लो अब ये बखेड़ा हम नहीं लेंगे शिकायत उन से करना गो मुसीबत मोल लेना है मगर ‘आजिज़’ ग़जल हम बे-सुनाए दम नहीं लेंगे
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ज़ालिम था वो और ज़ुल्म की आदत भी बहुत थी मजबूर थे हम उस से मुहब्बत भी बहुत थी उस बुत के सितम सह के दिखा ही दिया हम ने गो अपनी तबियत में बगावत भी बहुत थी वाकिफ ही न था रंज-ए-मुहब्बत से वो वरना दिल के लिए थोड़ी सी इनायत भी बहुत थी यूं ही नहीं मशहूर-ए-ज़माना मेरा कातिल उस शख्स को इस फन में महारत भी बहुत थी क्या दौर-ए-ग़ज़ल था के लहू दिल में बहुत था और दिल को लहू करने की फुर्सत भी बहुत थी हर शाम सुनाते थे हसीनो को ग़ज़ल हम जब माल बहुत था तो सखावत भी बहुत थी बुलावा के हम "आजिज़" को पशेमान भी बहुत हैं क्या कीजिये कमबख्त की शोहरत भी बहुत थी
(उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर असलम जाविदां ने यह आलेख लिखा है…। )