💠 एक बहरूपिया राजा के दरबार में वेश बदल-बदल कर कई बार गया, परन्तु राजा ने उसे हर बार पहचान लिया और कहा कि जब तक तुम हमें ऐसा रूप न दिखाएँगे जो पहचानने में न आवे तब तक इनाम न मिलेगा। यह सुन वह चला गया और कुछ समय पश्चात् साधु का रूप बन, महल के पास ही धूनी रमा दी। न खाना, न पीना, भेंट की ओर देखना भी नहीं। राजा ने भी उस महात्मा की प्रशंसा सुनी तो वह भी भेंट लेकर उपस्थित हुआ। उसने भेंट के सच्चे मोती आग में झोंक दिये।
💠 राजा उसकी त्याग वृत्ति देख भक्ति भाव से प्रशंसा करते हुए चले गये। दूसरे दिन बहरूपिया राज सभा में उपस्थित हुआ और अपने साधु बनकर राजा को धोखा देने की चर्चा करते हुए अपना इनाम माँगा। राजा ने प्रसन्न हो, इनाम दिया और पूछा-तुमने वे मोती, जो इनाम के मूल्य से भी अधिक मूल्यवान थे, आग में क्यों झोंक दिये। यदि उन्हें ही लेकर चले जाते तो बहुत लाभ में रहते? उसने उत्तर दिया-यदि मैं ऐसा करता तो इससे साधु-वेश कलंकित होता। साधुवेश को कलंकित करके धन लेने का अनैतिक कार्य कोई आस्तिक भला कैसे कर सकता हैं?”